Friday, July 3, 2009

पैर पर कुल्हाढ़ही

जब तुम्हें कहा था राही तब तो तुमने एक लव्स न सुना
तो फिर आज क्यों खरहे खरहे आंसू बहा रहे हो
चेतावनी सुनकर अनसुनी कर दी
तो फिर आज क्यों विदाम्बनायों के पुल बाँध रहे हो?

काँटा कहा था तुम्हीं ने इसे
फिर क्यों स्वयं ही ग्रहण किया?
जान लिए थे इसकी नियत
तोह फिर क्यों उसे शरण दिया

कर चुके हो जब स्वयं तुम ऐसा
हाँ कभी किसी और के साथ
तो फिर किसी और के करने पर क्यों गम है राही
ज़रा सोचो क्या बीती होगी उस पर उस क्षण

शायद यही तुम्हारी सजा है "प्यारे"
शायद यही तुम्हारा प्रायश्चित भी
होगा वही जो तुमने किया कभी
कुछ याद आई वोह कर्वी वाणी?

हाँ पर उम्मीद तोह बनाये रखूँगा
स्वयं की रह पर ही चलूँगा
आखिर मैंने ही तो फिर यह भी कहा था
आज को जी लो, कल को किसने देखा है


A self introspection done with the help of some my close friends. Straight from the heart again. Signing off with hope which is largely my own creation . I just hope it works out!

3 comments:

Jahnabi Roy said...

wow... beautifully written and how deep...

Anonymous said...

लगता है जनाब को विडम्बना का मतलब नहीं पता| अगर पता होता तो इसका बेसबब इस्तेमाल नहीं करते | मात्रभाषा की बेईज्ज़ती कर के रख दी है |
कम से कम शब्दों का उच्चारण तो ठीक से किया होता !

Unknown said...

its b'full